वट सावित्री व्रतः सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य, महत्व और इसकी समकालीन पर्यावरणीय प्रासंगिकता- डॉ. विकेश राम त्रिपाठी
दिल्ली
भारत में यह मुख्य रूप से यह पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित है। इसके अलावा यह प्राचीन काल से ही पंक्तिपावन ब्राह्मणों की विवाहित महिलाओं द्वारा अपने अनिवार्य प्रथा के रूप में प्रचलित है और सास से बहू तक वार्षिक रीति-रिवाजों के रूप में पारित किया जा रहा है, जो अब विलुप्तत्ता के कगार पर है। यह स्थानीय परंपरा का एक महान और बहुत ही प्रासंगिक स्रोत है और साथ ही बरगद के पेड़ की संरक्षण के बारे में लोक ज्ञान का स्रोत है जिसका अपना पर्यावरणीय महत्व है। इसके साथ ही इसका एक और महत्व यह है कि पति-पत्नी के बीच संबंधों को संतुलित करने का यह पारंपरिक प्रथा, अनुष्ठान और तरीका है। यह विवाहित भारतीय महिलाओं की सतीत्व शक्ति का एक अनुभवजन्य रूप से सिद्ध प्रमाण है, जहां मृत्यु के देवता को भी एक पतिव्रता महिला की भक्ति के कारण उसके पति के जीवन को वापस करना पड़ता हो वट सावित्री व्रत में सुहागिन महिलाएं बरगद के पेड़ की पूजा करती हैं, जो उनके सौभाग्य और पति की लंबी उम्र के लिए की जाती है। इस दिन महिलाएं पति की लंबी उम्र व तरक्की के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। मान्यता है कि इस दिन देवी सावित्री ने यमराज से पति सत्यवान के प्राण वापिस ले लिए थे। इस पर्व में मुख्य रूप से वट वृक्ष की पूजा की जाती है। कहा जाता है कि इस पेड़ में ब्रह्मा, विष्णु और शिव जी का वास होता है। वट सावित्री व्रत सुहागिन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु और अखंड सौभाग्य के लिए रखती हैं। यह व्रत सावित्री की कथा से जुड़ा है, जिसमें उसने अपने पति सत्यवान को यमराज से वापस जीवित लाने के लिए कठोर तपस्या की थी।
व्रत का महत्वः
1. पति की दीर्घायुः
महिलाएं इस व्रत को पति की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए रखती हैं।
2. अखंड सौभाग्यःव्रत रखने से सुहागिन महिलाओं को अखंड सौभाग्य और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
3. सावित्री की तपस्याः
यह व्रत सावित्री की दृढ़ इच्छाशक्ति और पति के प्रति समर्पण का प्रतीक है।
4. वट वृक्ष की पूजाः
वट सावित्री व्रत में वट वृक्ष (बरगद का पेड़) की पूजा का विशेष महत्व है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सावित्री ने यमराज से सत्यवान के प्राण वापस लाने के लिए वट वृक्ष के नीचे ही प्रार्थना की थी।
5. त्रिमूर्ति का प्रतीकः
वट वृक्ष को त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) का प्रतीक माना जाता है।
व्रत की कथा-
सावित्री ने अपने पति सत्यवान को यमराज से वापस लाने के लिए कठोर तपस्या की थी।
उनकी तपस्या और पति के प्रति अटूट प्रेम से प्रसन्न होकर यमराज ने सत्यवान के प्राण वापस कर दिए थे।
सावित्री ने यमराज से अपने पति के प्राण वापस मांगे थे, और उन्होंने वट वृक्ष के नीचे सत्यवान को पुनर्जीवित किया था।
वट सावित्री व्रत 2025 पूजन तिथि और विधि अमावस्या तिथि की शुरुआत 26 मई को सुबह 12 बजकर 11 मिनट से होगी अमावस्या तिथि का समापन 27 मई को सुबह 8 बजकर 31 मिनट पर होगा। वट सावित्री व्रत पूजा का मुहूर्त। ऐसे में 26 मई को वट सावित्री व्रत की पूजा अभिजीत मुहूर्त में करना बेहद शुभ माना जाता है। सुबह 11 बजकर 51 मिनट से 3 बजे तक का मुहूर्त सबसे शुभ है। इस व्रत में आम लीची, केला, पान, सुपारी फल को विशेष महत्व दिया गया है. इसके साथ ही घी में आटे से बने बरगद के पत्ते के आकार के पकवान का भोग चढ़ाया जाता है. आम, अंगूर, तरबूज, खीरा, अनानास, नारंगी, लीची आदि उत्तम भोग वट सावित्री की पूजा में चढ़ाए जाते हैं कच्चा सूत लेकर वट वृक्ष की परिक्रमा करते जाएं, सूत तने में लपेटते जाएं. उसके बाद 7 बार परिक्रमा करें, हाथ में भीगा चना लेकर सावित्री सत्यवान की कथा सुनें. फिर भीगा चना, कुछ धन और वस्त्र अपनी सास को देकर उनका आशीर्वाद लें बरगद के पेड़ की पूजा करने के लिए, पहले पेड़ को जल से स्नान कराएं, फिर तने को कलावा से बांधे और स्वच्छ वस्त्र से ढकें। उसके बाद, रोली, चंदन और अक्षत से तिलक लगाएं, धूप, दीप और कपूर जलाएं और भोग लगाएं। विस्तार सेः बरगद के पेड़ की परिक्रमा करें। पारण के समय पानी पिएं निर्जला व्रत रखने वाली महिलाओं को व्रत के पारण के समय पानी पीना चाहिए। इससे शुभ फल की प्राप्ति और सौभाग्य का आगमन होता है। बरगद के पेड़ की पूजा में कुछ विशेष
बातें हैं:
अक्षयवटः बरगद के पेड़ को अक्षयवट भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि यह हमेशा जीवित रहता है।
त्रिमूर्तिः मान्यता है कि बरगद के पेड़ में ब्रह्मा, विष्णु और महेश वास करते हैं।
कलावाः बरगद के पेड़ पर कलावा बांधने से सुख-शांति और मनचाही कामना की पूर्ति होती है।
समय की मांग है कि हम अपनी इस महान सांस्कृतिक विरासत को पहचानें और इसकी धरोहरों को सुरक्षित रखें तथा उनका दस्तावेजीकरण करें। इसके अलावा हमें आधुनिक भारतीय विवाहित महिलाओं को इसका पालन करने के लिए जागरूक करना होगा ताकि इस महान प्रथा को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाया जा सके।